Skip to content

जादूगोड़ा के लोग: ज़िंदगी की लड़ाई, उम्मीदों की जंग

Spread the love

जादूगोड़ा : जब मैंने पहली बार जादूगोड़ा के बारे में पढ़ा, तब लगा कि यह एक छोटा-सा इलाका है जहाँ यूरेनियम निकाला जाता है—देश की प्रगति के लिए, एटॉमिक पावर के लिए।


जादूगोड़ा

जब मैंने पहली बार जादूगोड़ा का नाम सुना, तो दिमाग़ में जादू की चमक और रोमांच की तस्वीर उभरी। लेकिन यह सच नहीं, यह ज़हर है—एक ऐसा ज़हर जो धीरे-धीरे यहां की मिट्टी, पानी, हवा और सबसे अहम, लोगों की ज़िंदगी में रच-बस गया है। आज मैं, A.P.S. JHALA, आपको इस छोटे से नगर की अदृश्य लड़ाइयों और अनकहे दुःखों से रूबरू कराऊँगा। यह कहानी सिर्फ रिपोर्ट नहीं, यह उन हौंसलों, आँसूओं और उम्मीदों की है, जो यहां के लोग हर दिन संजोकर रखते हैं।

“जिस धरती ने देश को शक्ति दी, उसे ही दर्द क्यों मिला?”

जादूगोड़ा… वो ज़मीन जिसने भारत को यूरेनियम दिया।
वो खामोश पहाड़ियाँ जहाँ से निकलते अणु-पदार्थों ने देश को न्यूक्लियर पावर की कतार में खड़ा किया,
जहाँ से निकली धड़कनें आज देश की सुरक्षा में धड़क रही हैं – लेकिन विडंबना देखिए…
जिस मिट्टी ने भारत को परमाणु ताकत बनाया, उसी मिट्टी के लोग आज खामोशी से तिल-तिल कर मर रहे हैं।

ये गाँव, जो कभी हरियाली से भरपूर था, आज रेडियोएक्टिव कणों की गिरफ्त में है।
जहाँ से देश को शक्ति मिली, वहाँ के बच्चे अपंग पैदा हो रहे हैं।
जहाँ से रॉकेट को ऊर्जा मिली, वहाँ की माँएँ हर रोज़ एक-एक साँस के लिए लड़ रही हैं।

क्या ये न्याय है?
क्या यही विकास है?

देश को परमाणु शक्ति देने वाले इस गाँव को क्या उसका हिस्सा सिर्फ ज़हर ही मिलेगा?
क्या हम सिर्फ शहरों के टावरों को गिनते रहेंगे, और इस गाँव की कराहते साँसों को अनसुना करते रहेंगे?

जादूगोड़ा ने भारत को ताकत दी, अब भारत की बारी है –
उसे इंसाफ़ देने की,
उसे साफ़ हवा देने की,
उसे एक ऐसा जीवन देने की जिसमें सिर्फ अणु न हों, कुछ सपने भी हों।


परिचित चेहरों के अनकहे जख्म

जादूगोड़ा में आप जैसे भी गाँव-सा माहौल तलाशेंगे—हमलोग, महिलाएँ-पुरुष, बच्चे, बूढ़े—सबके चेहरे पर एक झलक दिखेगी: वो मुस्कान, जो दर्द के बीच जकड़ी हुई है।

भागीरथ जी 42 वर्ष – पूर्व छात्र और अब स्थानीय स्कूल में अध्यापक। उनकी आँखों में थका हुआ प्रकाश है। कहता है, “हर सुबह जब स्कूल जाता हूँ, सोचता हूँ कि बच्चों को भविष्य का सपना दिखाऊँगा, पर क्या दिखाऊँगा—यहाँ के धुएँ में दम घुटता है।”

रजनी देवी, 35 – वर्षीय गृहिणी। चार बच्चों की माँ, जो रोज़ हाथ से धुआँ उड़ता चूल्हा देखती है। “पिछले तीन साल में मेरे बच्चे अस्थमा, एलर्जी और स्किन इंफेक्शन से जूझ रहे हैं,” कहती हैं, “दवा तो मिल जाती है, पर न जाने कब फिर से खोंटने लगेगा यह धुंआ।”

ललितू, 8 साल का बालक – जो बाल-विकास केंद्र में पढ़ाई करता है। उसकी छोटी-सी माँ आँचल कहती है, “दो महीने पहले उसका वज़न 15 किलो था, अब 12 किलो रह गया। डॉक्टर ने कहा कुपोषण और प्रदूषण दोनों की मार है।”

इन चेहरों के पीछे छिपा है विस्तार से नज़र आने वाला एक दर्द, जो औपचारिक रिपोर्टों में “स्टेटिस्टिकल डेटा” बनकर रह जाता है, पर असल ज़िंदगी में बहती है आँसुओं की नदी बनकर।


परिवारों की आवाज़: घर-घर में आत्माएं

जादूगोड़ा की हवाओं में रट लगा दी गई है “यूरेनियम” की गंध, पर इस गंध के साथ लोग कितने यादों और आत्माओं का बोझ बहा रहे हैं, इसे समझना आसान नहीं।

सुमन घरवालों की कहानी सुनिए। उनके परिवार में अब तक तीन बच्चों का जन्मजात दोष सामने आया। बड़े-बूढ़े कहते हैं, “कभी संसार में इतनी मुसीबत नहीं देखी।”

चौधरी साहब, 60 वर्ष, कहते हैं, “पहले मेरे खेत हरे-भरे थे, आज वही खेत में छूटे हैं पत्थर, रसायन और एक अजीब-सी उदासी।” किसानों का पसोपेश यही कि रसायन ले जाने वाली गाड़ियों से ठीक पहले पास होकर भी पानी भरना मौत के कानों से सहलाना हो गया है।

हर घर में एक-दो-तीन आत्माएं शून्य में खो जाती हैं—कोई बीमारी की चपेट में, कोई उम्मीदों की कमी में, कोई इलाज की कमी में। दुनिया तो बहुत बड़ी और बहुत रंगीन है, पर यहां के लोग अपनी दुनिया को सिकुड़ता देख रहे हैं।


सपनों के टूटने की गुरुत्वाकर्षण शक्ति

जादूगोड़ा का हर बच्चा न्यूक्लियर साइंस या इंजीनियरिंग का सपना देखता है—क्योंकि यहाँ पहली यूरेनियम खानों में नौकरी मिली तो ज़िंदगी बदल जाती है। लेकिन…

जब बच्चे बड़े होते हैं, तब माँ-बाप के फेफड़े, तंत्रिका तंत्र, लीवर पर मंडराती बीमारियाँ उनकी उड़ान काट देती हैं।

सपनों का बल छमाही रिपोर्ट, शरीर का दर्द और आर्थिक तंगी से टूट जाता है।

एक सपना गुज़रता है, तो उसके साथ टूटती है एक पूरी पीढ़ी—वो जो विज्ञान को हाथ लगाने निकली थी, ख़ुद ज़हर में दम तोड़ देती है।


माताएँ और बेटियाँ: पीड़ा का साझा अस्तित्व

यहां की महिलाएँ दोहरी लड़ाई लड़ती हैं—एक, घर में परिवार को संभालने की; दूसरी, बीमारी का सामना।

अंजना, 28 वर्ष, कहती हैं, “मैं जानती हूँ कि लड़का-पत्नी, परिवार सबका ख़याल रखना है। पर हर रोज़ सोचती हूँ—क्या मेरे बच्चे भी इस प्रदूषण की ताज़गी से जूझेंगे?”

बेटी नीहा, 12 वर्ष, स्कूल जाती है, पर वहाँ खेल-खिलौने में मज़ा नहीं। कहती है, “माँ, मेरी सहेली को खांसी बहुत रहती है, वह कभी स्कूल नहीं आ पाती।”

इस पीड़ा का अनुविभाग नहीं—हर पीड़ा अपनी पीड़ा को बेहतर जानती है, फिर भी सबकी आँखें भीगी हुई हैं।


स्वास्थ सुविधाएँ: इलाज या धुलाई?

सरकारी आंकड़े कहते हैं—“यहाँ हड़तालें ख़त्म हुईं, सुविधाएँ हैं, डॉक्टर हैं।” मगर जो सच्चाई वहाँ के चेम्बर दर चेम्बर घूमकर देखे, वह इससे बिलकुल अलग है:

दूर-दराज़ इलाकों से आने वाले मरीजों को दो-दो दिन लाइन में खड़ा किया जाता है—लालटेन सी रोशनी में, धूल मिट्टी में।

इलाज के लिए कागज़ों का अंबार, परमिशन लेना, और फिर भी ज़रूरी मशीनरी ना मिलना—यह सब यहां की नियमित कहानी है।

स्वास्थ व्यवस्थाएं एक ढोंग सी हैं—उनमें छुपा है ज़िंदगी की कीमत, जो यहाँ के लोगों की जेब से जाती है, उनके उम्मीदियों से नहीं।


सामाजिक एकजुटता: दर्द के धागे बुनना

दर्द ने जादूगोड़ा के लोगों को एक-दूसरे से जोड़ने का काम भी किया है।

स्थानीय एनजीओ और सोशल वर्क संगठन जुटे हैं—स्वयंसेवक स्कूल चलाने से लेकर मेडिकल कैंप तक।

लोग आपस में मदद करते हैं: बीमार बच्चों के लिए दवाइयाँ बाँटते, सांत्वना के लिए एक-दूसरे के घर आते।

यहाँ िहारत, उम्मीद की लौ, इनमे आज भी जिंदा है—जिससे पता चलता है कि मुश्किल हालात में इंसान एक-दूसरे का सहारा बन जाता है।

क्यों बनी जादूगोड़ा की यह भयावह स्थिति?

जादूगोड़ा की हालत आज जिस दर्दनाक मुकाम पर है, उसके पीछे कई मुख्य कारण हैं:

यूरेनियम खनन का अनियंत्रित प्रसार

1967 में Uranium Corporation of India Ltd. (UCIL) ने यहाँ भारत की पहली यूरेनियम खान खोली।

यूरेनियम निकालने के बाद जो radioactive waste (जैसे tailings) बचता है, उसे बिना सुरक्षित व्यवस्था के खुले में छोड़ दिया गया।

ये विषैले कण धीरे-धीरे मिट्टी, पानी और हवा में फैल गए — जिससे स्थानीय जीवन प्रणाली पर सीधा असर पड़ा।

खुले टेलिंग्स तालाब और रिसाव

टेलिंग्स (radioactive गीली राख) को खुले गड्ढों में डाला गया, जिनकी सुरक्षा दीवारें कई बार टूटीं या रिसने लगीं।

कई बार बारिश के साथ ये जहरीला पानी नदियों और खेतों में मिल गया।

स्थानीय जनजातियों को बिना जानकारी विस्थापित करना

Adivasi समुदायों को बिना पूर्व चेतावनी, जानकारी या पर्याप्त मुआवज़े के विस्थापित कर दिया गया।

बहुत से लोगों को संयंत्रों के पास बसाया गया, जहां रेडियोधर्मी विकिरण की मात्रा बहुत अधिक थी।

स्वास्थ्य अध्ययन और सच्चाई को नकारना

जब-जब स्थानीय NGO और वैज्ञानिक संस्थाएँ (जैसे जापान की Kyoto University) ने रिसर्च किया और विकिरण के प्रमाण पाए — तो सरकारी एजेंसियों ने इसे खारिज कर दिया।

BARC (भाभा एटॉमिक रिसर्च सेंटर) और UCIL का कहना है कि “स्वास्थ्य समस्याओं का कारण गरीबी, कुपोषण और क्षेत्रीय बीमारियाँ हैं”, विकिरण नहीं।


सरकार और UCIL का रुख: किया क्या गया अब तक?

जो कदम उठाए गए:

  1. UCIL द्वारा सीमित मेडिकल सुविधा केंद्र शुरू किए गए।
  2. कुछ आधिकारिक रिपोर्ट्स तैयार की गईं जिनमें विकिरण के स्तर “सुरक्षित दायरे” में बताए गए।
  3. सरकार ने CSR (कॉर्पोरेट सोशल रिस्पॉन्सिबिलिटी) के तहत स्कूल, अस्पताल और जल-आपूर्ति योजनाएँ चलाने का दावा किया।

जो नहीं किया गया (और करना चाहिए था):

रेडियोधर्मी कचरे की सुरक्षित निपटान प्रक्रिया लागू नहीं की गई।

स्थानीय लोगों की स्वास्थ्य निगरानी का कोई दीर्घकालिक प्लान नहीं।

स्थायी पुनर्वास योजना, साफ पेयजल, और पूर्ण स्वच्छता मिशन आज भी अधूरा।

पारदर्शिता की कमी: आज भी आम नागरिकों को यह जानकारी नहीं दी जाती कि उनके घर के पास कौन-सी जगह रेडियोएक्टिव खतरे वाली है।

न्यायिक हस्तक्षेप:

झारखंड हाईकोर्ट ने 2014 में UCIL और राज्य सरकार से जवाब माँगा था कि क्यों स्थानीय लोगों के स्वास्थ्य की अनदेखी की जा रही है।

लेकिन अब तक कोई ठोस नीति या राहत पैकेज जमीन पर पूरी तरह नहीं उतरा।


जादूगोड़ा की मौजूदा हालत एक सामूहिक प्रशासनिक विफलता की उपज है:

एक ओर भारत को न्यूक्लियर पावर की दिशा में आत्मनिर्भर बनाना था।

दूसरी ओर, स्थानीय निवासियों को जिंदा लाशें बना दिया गया।

सरकार और UCIL को चाहिए कि वे अब मात्र रिपोर्ट और प्रेस विज्ञप्ति से आगे बढ़कर, पारदर्शिता, इलाज, और पुनर्वास की ज़मीनी योजनाएँ चलाएं — नहीं तो जादूगोड़ा सिर्फ एक रेडियोधर्मी ज़मीन नहीं, बल्कि मानवता की शर्मनाक कब्रगाह बन जाएगा।

बच्चों में पाई गई प्रमुख बीमारियाँ:

जन्मजात विकृतियाँ (Congenital Deformities):

कई बच्चों का जन्म अंगविकृति, जैसे बिना हाथ-पैर, टेढ़े-मेढ़े अंग, या सिर के असामान्य आकार के साथ हुआ है।

कुछ बच्चों का शारीरिक विकास सामान्य नहीं होता, वे कई वर्षों तक सामान्य ढंग से चल या बोल नहीं पाते।

मानसिक मंदता और न्यूरोलॉजिकल समस्याएँ:

बच्चों में मानसिक विकास बहुत धीमा देखा गया है।

पढ़ाई में ध्यान की कमी, बोलने में देर, और न्यूरो डिसऑर्डर (जैसे ऑटिज़्म जैसे लक्षण) आम हो चुके हैं।

हड्डियों और खून से जुड़ी बीमारियाँ:

एनीमिया, बोन फ्रैक्चर बिना कारण के, और रक्त विकार (जैसे थैलेसीमिया जैसी हालतें) देखी गई हैं।

फेफड़ों से जुड़ी समस्याएँ:

बच्चों को जन्म के साथ ही सांस लेने में तकलीफ, बार-बार अस्थमा या निमोनिया जैसी समस्याएं हो रही हैं।


किसने दी पुष्टि?

Kyoto University, Japan का रिसर्च (2008):

उन्होंने जादूगोड़ा के आसपास रहने वाले 9 गाँवों के लोगों पर अध्ययन किया।

रिपोर्ट में पाया गया कि इन गाँवों में जन्मजात विकृति और कैंसर की दरें राष्ट्रीय औसत से 3-5 गुना अधिक थीं।

बच्चों में विकिरण-जनित DNA mutations के प्रमाण मिले।

NGO रिपोर्ट्स (Jharkhandi Organisation Against Radiation – JOAR):

ये संस्था लंबे समय से जमीनी स्तर पर काम कर रही है।

उन्होंने बताया कि 5km के दायरे में रहने वाले लोगों में हर तीसरे परिवार में कोई न कोई बच्चा शारीरिक/मानसिक बीमारी से ग्रस्त है।

The Caravan, Down to Earth, Hindustan Times जैसी मीडिया रिपोर्ट्स में:

दर्जनों केस स्टडी दिखाई गई हैं जिनमें बच्चा स्वस्थ माँ-बाप से पैदा होकर भी गंभीर बीमारियों का शिकार हुआ।


UCIL और सरकार का जवाब?

UCIL और BARC का कहना है कि “यह बीमारियाँ विकिरण से नहीं, बल्कि गरीबी, कुपोषण, और संक्रमणों से होती हैं।”

लेकिन स्थानीय लोग और स्वतंत्र वैज्ञानिक इससे सहमत नहीं हैं।

एक ग्रामीण माँ का बयान –
“मेरे तीन बच्चों में से दो विकलांग हैं। डॉक्टर ने कहा ये कुदरती है। पर गाँव में 10 में से 4 बच्चे ऐसे ही हैं, तो क्या यह भी कुदरत है?”


जादूगोड़ा में जो हो रहा है, वह सिर्फ “स्वास्थ्य संकट” नहीं है, यह एक मानवाधिकार हनन है।

जब बच्चे इस दुनिया में बिना गलती के दर्द, अपंगता और बीमारी के साथ आते हैं,

और जब समाज, सरकार और कंपनी मिलकर चुप्पी साध लेते हैं,

तो यह विकास की कीमत नहीं, नरसंहार की एक धीमी कहानी बन जाती है।


पीढ़ीगत असर: न जाने आगे क्या कहेंगे हम

किसी ने ठीक कहा है, “बीमारियाँ तो शरीर की होती हैं, लेकिन समाज का किले टूटने का असर मन पर भी पड़ता है।”

आने वाली पीढ़ियाँ औसत जीवनकाल, स्वास्थ्‍य सूचकांकों से प्रभावित होंगी।

स्थानीय संस्कृति—भोज, त्योहार, मेलों का रंग फीका पड़ रहा है, क्योंकि ज़्यादातर लोग इलाज और रोज़ी-रोटी की ग्यारंटी​ के लिए जूझ रहे हैं।

यह कहानी रुकने वाली नहीं, जब तक कि हम सभी—सरकार, समाज, नागरिक—मिलकर कोई ठोस कदम नहीं उठाते।


जादूगोड़ा : आशा की किरण: छोटी-छोटी जीतें

हर अँधेरे में एक छोटी सी रोशनी होती है।

कुछ परिवारों ने फिल्टर किए पानी के लिए सोलर पंप लगाए।

स्कूलों में स्वास्थ्य जागरूकता सत्र, प्रदूषण मापने वाले उपकरण, मास्क-वितरण से थोड़ी राहत मिली।

ये छोटी-छोटी जीतें इस संदेश को ज़िंदा रखती हैं कि बदलाव संभव है।


जादूगोड़ा की पुकार

जादूगोड़ा “जादू” का नाम नहीं, इतिहास का सबक है—कि जब हम प्रकृति की हदें पार कर देते हैं, तो प्रकृति हमें रोज़ संभोच कर याद दिलाती है।

स्थानीय लोगों की जीवन-यात्रा, संकल्प और संघर्ष हमें यह सिखाते हैं कि अँधेरे में भी उम्मीद को जगाए रखना जरूरी है।

हमें मिलकर सुरक्षित जीवन, स्वच्छ पर्यावरण और बुनियादी स्वास्थ्य सुविधाएँ सुनिश्चित करनी होंगी, तभी हम इस दागी मिट्टी को फिर से हरा-भरा बना पाएंगे।

आइए, जादूगोड़ा के लोगों की जीवन-गाथा को सिर्फ सुनने तक न सीमित रखें—इस पर कार्रवाई करें। यही सबसे बड़ा सम्मान होगा उनकी लड़ाई को, और यही उनकी जीत होगी।

“जब ज़िंदगी ज़हर लगे, तब भी उम्मीद की एक बूँद ज़िद पर कायम रहती है।”

लेखक की तरफ़ से एक भावुक संदेश:


“ये पोस्ट नहीं, ये जादूगोड़ा की पुकार है…”
लेखक: A.P.S. JHALA

जब मैंने पहली बार जादूगोड़ा के बारे में पढ़ा, तब लगा कि यह एक छोटा-सा इलाका है जहाँ यूरेनियम निकाला जाता है—देश की प्रगति के लिए, एटॉमिक पावर के लिए। लेकिन जब मैंने वहाँ के लोगों की आँखों में देखा… उनके बच्चों के झुके हुए सिर, माँ-बाप के कांपते हाथ, और दादी-नानी की रोती कहानियाँ सुनीं… तब समझ आया कि यह “परमाणु शक्ति” की नहीं, इंसानियत की सबसे बड़ी हार की कहानी है।

यह लेख सिर्फ कुछ शब्दों की मालाओं से बंधा एक ब्लॉग पोस्ट नहीं है।
यह उन हजारों गुमनाम आवाज़ों की पुकार है, जो ना संसद तक पहुँचती हैं, ना प्राइमटाइम टीवी पर दिखाई जाती हैं।
यह उन बच्चों का दस्तावेज़ है, जो खेल के मैदान में नहीं, हॉस्पिटल के बिस्तर पर बड़े हो रहे हैं।

जादूगोड़ा के घरों में शाम जल्दी ढल जाती है — सूरज से पहले चेहरे बुझ जाते हैं।
यहाँ हँसी नहीं गूंजती, साँसें थमती हैं।
यहाँ भूख रोटी से बड़ी बीमारी नहीं है, रेडियोधर्मी ज़हर उससे भी गहरी चोट है।

मैं लेखक हूँ… लेकिन पहली बार लगा कि लिखना काफी नहीं।
इस लेख को पढ़ना सिर्फ जानकारी लेना नहीं है —
यह ज़िम्मेदारी है, यह जवाब है उन लोगों के लिए जो आज भी न्याय के इंतज़ार में हैं।

अगर ये लेख आपके मन में थोड़ी भी संवेदना जगा पाए, तो मेरी आपसे विनती है—
इस बात को साझा कीजिए, आवाज़ बनिए, सवाल उठाइए।
क्योंकि कभी-कभी एक शेयर, एक टिप्पणी, एक प्रश्न—किसी बच्चे को जीवन दे सकता है।
किसी माँ को उम्मीद दे सकता है।
और किसी गाँव को इंसाफ़ के रास्ते की शुरुआत दे सकता है।

मैं नहीं चाहता कि जादूगोड़ा अगला भोपाल बन जाए।
मैं चाहता हूँ कि जादूगोड़ा का बच्चा भी स्कूल जाए…
खुले मैदान में दौड़े…
और बिना डर के साँस ले सके।

ये पोस्ट नहीं,
ये दर्द है…
ये दस्तावेज़ है…
ये जादूगोड़ा की पुकार है।

– A.P.S. JHALA
(सिर्फ़ लेखक नहीं, उस पुकार का एक माध्यम)

ऐसी ही और ताज़ा और भरोसेमंद खबरों के लिए — हमसे जुड़े रहिए।

बजाऊ जनजाति (Bajau Tribe): समुद्र के खानाबदोशों की अद्भुत कहानी

Author

  • A.P.S Jhala

    मैं A.P.S JHALA, "Kahani Nights" का लेखक, हॉरर रिसर्चर और सच्चे अपराध का कहानीकार हूं। मेरा मिशन है लोगों को गहराई से रिसर्च की गई डरावनी और सच्ची घटनाएं बताना — ऐसी कहानियां जो सिर्फ पढ़ी नहीं जातीं, महसूस की जाती हैं। साथ ही हम इस ब्लॉग पर करंट न्यूज़ भी शेयर करेंगे ताकि आप स्टोरीज के साथ साथ देश विदेश की खबरों के साथ अपडेट रह सके। लेखक की लेखनी में आपको मिलेगा सच और डर का अनोखा मिश्रण। ताकि आप एक रियल हॉरर एक्सपीरियंस पा सकें।

Leave a Comment