डोम जाति : जो हर किसी की चिता को आग देता है, खुद समाज के हाशिये पर जीवन बिताता है। परंतु क्या आपने कभी उनके जीवन को नज़दीक से देखा है?
जहां एक ओर जीवन का उत्सव धूमधाम से मनाया जाता है, वहीं मृत्यु को अक्सर एक भय के रूप में देखा जाता है। लेकिन काशी — जिसे मोक्ष की नगरी कहा जाता है — वहां मृत्यु कोई अंत नहीं, बल्कि एक नई शुरुआत मानी जाती है। और इस अंतिम यात्रा को पूरा करने का जिम्मा उठाती है डोम जाति, जो सदियों से बनारस की चिताओं की रक्षक रही है।
“जिस अग्नि में शरीर जलता है, वहीं डोम जाति की पहचान बनती है।”
डोम, जो हर किसी की चिता को आग देता है, खुद समाज के हाशिये पर जीवन बिताता है। परंतु क्या आपने कभी उनके जीवन को नज़दीक से देखा है?
बनारस के घाट: जीवन और मृत्यु की सरहद
बनारस यानी वाराणसी — एक ऐसा शहर जो जीवन और मृत्यु, दोनों का संगम है। यहां करीब 88 घाट हैं, जिनमें से हर एक घाट का अपना पौराणिक, ऐतिहासिक और धार्मिक महत्व है। गंगा के किनारे बसे ये घाट न केवल श्रद्धालुओं के स्नान और पूजा-अर्चना के लिए हैं, बल्कि कई घाट मृत्यु के अंतिम संस्कार के लिए प्रसिद्ध हैं।
इन घाटों में मणिकर्णिका घाट और हरिश्चंद्र घाट को सबसे पवित्र माना जाता है, क्योंकि यही वे स्थान हैं जहां “मोक्ष की अग्नि” प्रज्वलित होती है — और इसी मोक्ष की यात्रा में डोम जाति सबसे बड़ा सहायक है।
मणिकर्णिका घाट: चिता जो कभी बुझती नहीं
मणिकर्णिका घाट को “महादेव की भूमि” कहा जाता है। मान्यता है कि यहीं माता पार्वती का कर्णफूल गिरा था और भगवान शिव ने यहां मृत्यु को हराकर मोक्ष का द्वार खोला।
यह घाट दिन-रात जलती चिताओं का प्रतीक है। कहा जाता है कि यह चिता कभी बुझती नहीं, और इस “अनंत अग्नि” को जलाए रखने वाला कोई और नहीं, डोम जाति है।
हरिश्चंद्र घाट: सत्य और सेवा की मिसाल
हरिश्चंद्र घाट राजा हरिश्चंद्र की कहानी से जुड़ा हुआ है, जिन्होंने सत्य के पालन हेतु खुद को श्मशान का कर्मचारी बना लिया था। यह घाट भी मणिकर्णिका की तरह अंतिम संस्कारों का प्रमुख केंद्र है।
यहां भी वही दृश्य —
धुआं उठती चिताएं,
लकड़ियों की आवाज़,
और चुपचाप अपना कर्म करते डोम समाज के लोग।
यह दृश्य आम आंखों को भयावह लग सकता है, लेकिन डोम जाति के लिए यही जीवन का आधार है।
डोम जाति: एक परिचय
डोम एक पारंपरिक जाति है जिसे भारत के विभिन्न हिस्सों में देखा जा सकता है, लेकिन काशी (बनारस) में इनका विशेष स्थान है। यह जाति हिंदू समाज के सबसे निचले स्तर पर गिनी जाती रही है, लेकिन इनका काम उतना ही महत्वपूर्ण है जितना कि किसी ब्राह्मण का मंत्रोच्चारण।
डोम जाति की भूमिका:
हर शव को घाट पर डोमों की सहायता से लाया जाता है।
चिता को सजाने, लकड़ियां जुटाने और अग्नि देने का कार्य वही करते हैं।
यह कार्य पीढ़ी दर पीढ़ी चलता आ रहा है।
डोम राजा ही वह व्यक्ति होता है जिसके आदेश के बिना कोई चिता नहीं जलती।
सवाल ये है:
जिस घाट पर मृत्यु भी मोक्ष बन जाती है, उसी घाट पर खड़े डोम को मोक्ष नहीं, सिर्फ़ तिरस्कार क्यों मिलता है?
मणिकर्णिका घाट: डोमों की कर्मभूमि
काशी का मणिकर्णिका घाट, हिंदू धर्म में मोक्ष प्राप्ति का द्वार माना जाता है। माना जाता है कि यहां चिता पर जलना ही अंतहीन जन्म-मरण के चक्र से मुक्ति है।
लेकिन इस पवित्र मोक्ष के पीछे खड़े होते हैं वही डोम, जिनकी समाज में उपेक्षा की जाती है। मणिकर्णिका पर हर दिन सैकड़ों शव आते हैं और हर शव को मुखाग्नि देने के पीछे एक डोम का हाथ होता है।
डोम राजा, बनारस के डोम समाज के प्रमुख व्यक्ति होते हैं और माना जाता है कि उनकी अनुमति के बिना घाट की कोई चिता नहीं जल सकती।
जीवन और आग: डोमों का संघर्ष
आप सोचिए — एक ऐसा समाज जो हर रोज़ मौत से रूबरू होता है, क्या वह जीवन को महसूस कर पाता है?
बच्चों का जन्म हो या विवाह, डोम जाति के साथ कोई सामाजिक रिवाज नहीं निभाया जाता।
कई बार इनकी बस्तियों को शहर की मुख्यधारा से अलग रखा गया है।
शिक्षा, स्वास्थ्य और रोज़गार जैसी मूलभूत सुविधाओं से भी ये वंचित रहते हैं।
फिर भी, इन्होंने कभी अपने कार्य से विमुख नहीं हुए — क्योंकि मृत्यु इनकी रोज़ की संगिनी है।
घाट और डोम: एक अटूट रिश्ता
काशी के घाट केवल धार्मिक स्थल नहीं हैं, बल्कि एक जीवित संस्कृति हैं, और डोम समाज उसके सबसे अहम स्तंभ।
- परंपरा और उत्तरदायित्व
हर डोम बच्चा यह जानता है कि एक दिन उसे घाट पर जाना है, चिता जलानी है। यह कर्म उनका व्यवसाय नहीं, बल्कि एक परंपरा है।
“हम मौत को जलाते हैं ताकि किसी को जीवन मिले” — यह कहावत घाटों पर हर डोम के जीवन की सच्चाई है। - अदृश्य सम्मान
लाखों लोग घाट पर शव लेकर आते हैं, पर कोई भी डोम के काम को सम्मान की दृष्टि से नहीं देखता।
उन्हें केवल ‘काम करने वाला’ समझा जाता है, जबकि उनका योगदान मोक्ष की प्रक्रिया का अभिन्न हिस्सा है। - पर्यटन और पाखंड
घाटों पर आने वाले विदेशी पर्यटक अक्सर घाटों की तस्वीरें लेते हैं, डॉक्युमेंट्री बनाते हैं, पर डोमों की वास्तविक स्थिति को समझना भूल जाते हैं।
उनकी गरीबी, संघर्ष, और जीवन की सच्चाई छिप जाती है उन तस्वीरों की धुंध में।
लेखक की अनुभूति: घाट पर खड़े होकर
जब मैं घाट पर गया था, वहां एक शव को अंतिम विदाई दी जा रही थी। चिता की आग तेज़ थी, लोग रो रहे थे, पर उस धुंए के बीच एक डोम युवक शांत खड़ा था — मानो वह जानता था कि मृत्यु भी एक प्रक्रिया है।
मैंने उससे पूछा, “क्या आपको डर नहीं लगता?”
उसने जवाब दिया,
“डर तो उन्हें लगता है जो जीवन को पकड़ कर बैठते हैं, हम तो हर रोज़ उसे विदा देते हैं।”
परंपरा बनाम पहचान: क्या यही इनकी नियति है?
कभी-कभी लगता है कि डोम जाति को समाज ने एक विशेष भूमिका में कैद कर दिया है — “चिताओं का सेवक”।
क्या कोई जाति केवल इसलिए ताउम्र चिता ही जलाएगी क्योंकि वह उसकी परंपरा है?
क्या यह आवश्यक है कि समाज किसी भी जाति को उसके पारंपरिक काम से बाहर निकलने का अवसर न दे?
डोम राजा का दर्जा और विवाद
डोम राजा को बनारस की संस्कृति और आध्यात्म में एक पवित्र स्थान प्राप्त है।
जब काशी में कोई शाही मेहमान आता है, जैसे प्रधानमंत्री या राष्ट्रपति, तो उन्हें डोम राजा से मिलवाया जाता है।
रामलीला हो या काशी के घाटों का कोई त्योहार — डोम राजा की मौजूदगी सम्मान के साथ मानी जाती है।
परंतु यह सम्मान क्या वास्तव में सामाजिक न्याय में बदल पाया है?
नई पीढ़ी की सोच: क्या चिता से बाहर निकल पाएगा जीवन?
डोम जाति के कई युवा अब शिक्षा की ओर अग्रसर हैं। कुछ समाज सेवाओं में लगे हैं, तो कुछ कलाकार बन गए हैं।
कुछ ने अपने अनुभवों को फिल्म और लेखन के माध्यम से सामने रखा।
यू-ट्यूब और सोशल मीडिया पर “घाट के डोम” जैसे चैनल बन रहे हैं जो उनके संघर्ष और गौरव को दिखाते हैं।
यह बदलाव धीमा है, परंतु परिवर्तन का संकेत है।
डोम महिलाएं: दोहरी उपेक्षा
जहां डोम पुरुषों को मृत्यु के कार्य में शामिल किया जाता है, वहीं महिलाएं भी घाटों पर लकड़ियां जोड़ने से लेकर शव सजाने तक का काम करती हैं।
लेकिन उनका जीवन और भी कठिन है —
दोहरी शोषण: जाति और लिंग दोनों का दबाव
स्वास्थ्य सुविधाओं की भारी कमी
शिक्षा और सुरक्षा की उपेक्षा
इन महिलाओं की कहानी अभी भी समाज के कानों तक नहीं पहुंच पाई है।
मीडिया और साहित्य में डोम जाति
कई उपन्यासों, वृत्तचित्रों और शॉर्ट फिल्मों में डोम जाति को दिखाया गया है:
“मसान” फिल्म में डोम जाति के एक युवक की प्रेम कहानी और संघर्ष को दर्शाया गया।
“Banaras – A Mystic Love Story” जैसी फिल्मों में भी घाटों की इस जाति को एक अलग नज़रिए से देखा गया।
रामचंद्र शुक्ल जैसे साहित्यकारों ने भी डोमों की सामाजिक स्थिति पर प्रश्न उठाए हैं।
सामाजिक न्याय की मांग
डोम जाति के लोग अब संगठित हो रहे हैं।
वे शिक्षा, रोजगार, और स्वास्थ्य के समान अवसरों की मांग कर रहे हैं।
सामाजिक भेदभाव को मिटाने और सम्मानजनक जीवन जीने के अधिकार की मांग कर रहे हैं।
उनकी सबसे बड़ी मांग यह है: “हमें केवल मृत शरीरों का सहारा मत समझो, हम भी जीवित इंसान हैं।”
लेखक का दृष्टिकोण:
मैं, A.P.S. JHALA, जब पहली बार मणिकर्णिका घाट पर गया था, तब देखा कि चिता की आग तो बुझ जाती है, पर डोम जाति के जीवन में वह आग हर दिन जलती रहती है — भूख की, उपेक्षा की, और पहचान की।
वह बच्चा जो घाट पर शव से गिरी लकड़ियां बीन रहा था, वो कोई अपराधी नहीं, डोम था। उसकी आंखों में ना डर था, ना उम्मीद — सिर्फ स्वीकृति थी, अपने भाग्य की।
क्या यह भाग्य वाकई अपरिवर्तनीय है?
निष्कर्ष:
डोम जाति ने बनारस की संस्कृति को जीवित रखा है, मोक्ष की परंपरा को निभाया है, और समाज को उसकी पवित्रता दी है।
अब समाज की जिम्मेदारी है कि वो उन्हें केवल चिता जलाने वाला नहीं, बल्कि एक जीवित इंसान, एक नागरिक, एक समान भागीदार माने।
क्योंकि अगर मृत्यु से मोक्ष संभव है, तो जीवन से सम्मान क्यों नहीं?
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