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कोरोवाई जनजाति का रहस्य -पेड़ों के ऊपर घर और इंसानों की बलि

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पापुआ न्यू गिनी की कोरोवाई जनजाति जंगलों में पेड़ों पर घर बनाकर रहती है और मानव बलि जैसी भयानक प्रथाएं आज भी चलती हैं। जानिए इस रहस्यमयी जनजाति की कहानी

कोरोवाई जनजाति

कोरोवाई जनजाति : जंगल बोलता है…

हम जंगलों को रहस्यों की खान मानते हैं, लेकिन जब किसी जनजाति का पूरा जीवन ही 50 फीट ऊंचे पेड़ों पर टिका हो… और जब रात के अंधेरे में किसी के शिकार की गूंज गूंजे – तो वो सिर्फ जंगल की कहानी नहीं रह जाती… वो एक दहशत बन जाती है।
आज मैं आपको लिए चल रहा हूँ पापुआ न्यू गिनी के भीतर बसे उस भयानक सच की ओर – कोरोवाई जनजाति की ओर।

कोरोवाई कौन हैं ?

पेड़ों के ऊपर दुनिया बसाने वाली जनजाति

कोरोवाई जनजाति इंडोनेशिया के पापुआ प्रांत के दूरस्थ जंगलों में रहती है।

कोरोवाई जनजाति

ये लोग आधुनिक सभ्यता से बहुत दूर, सदियों पुराने रीति-रिवाजों के अनुसार जीवन बिताते हैं।

इनका हर घर पेड़ की लगभग 40 से 50 फीट ऊंचाई पर बना होता है, ताकि सांप, जानवर और शत्रु उन तक न पहुंच सकें।

कोरोवाई एक जनजाति है जो लगभग 35 साल पहले पापुआ के सुदूर इलाके में पाई गई थी। इसकी आबादी लगभग 3000 है। यह अलग-थलग जनजाति रूमाह टिंगगी नामक एक पेड़ के घर में रहती है। कुछ घर जमीन से 50 मीटर की ऊंचाई तक भी पहुंच सकते हैं। कोरोवाई मुख्य भूमि पापुआंस में से एक हैं जो “कोटेका” का उपयोग नहीं करते हैं।

“सोचिए एक ऐसा घर जहां जाने के लिए सीढ़ी नहीं, बल्कि पेड़ की शाखाएं ही रास्ता हैं… और हवा में डोलते उस घर में पूरा परिवार रहता है – बच्चे, बूढ़े, और वो रहस्य… जो नीचे की जमीन को खून से सींचता है।”

कोरोवाई जनजाति

कोरोवाई जनजाति पापुआ के घने वर्षावनों में निवास करती है, जो अराफुरा सागर से लगभग 150 किलोमीटर की दूरी पर स्थित हैं। ये लोग पारंपरिक शिकारी और संग्रहकर्ता (Hunter-Gatherers) हैं, जिनकी जीवित रहने की क्षमताएं अत्यंत कुशल मानी जाती हैं। 1975 के आसपास तक, कोरोवाई का बाहरी दुनिया से लगभग कोई संपर्क नहीं हुआ था। सरकार द्वारा स्थापित नए गांवों में रहना, उनके लिए हाल के वर्षों की एक नई बात है।

उन्होंने अपने घरों को इस प्रकार बनाया कि वे दो या तीन हिस्सों में बंटे होते हैं और हर हिस्से में अलग-अलग आग जलाने की जगह होती है। पुरुष और महिलाएं सामान्यतः अलग-अलग स्थानों पर रहते हैं।

वर्ष 1992 में, जब बोवेन डिगोएल प्रशासन ने यानिरुमा नामक एक गांव की शुरुआत की, तब पहली बार कुछ डॉक्युमेंट्री फिल्म मेकर्स को कोरोवाई समुदाय की बस्तियों में प्रवेश की अनुमति मिली।”

“आज भी कोरोवाई जनजाति समुदाय के अधिकांश लोग पारंपरिक जीवनशैली में विश्वास रखते हैं। वे पत्थर के औजार खुद तैयार करते हैं, अपने ही तरीकों से नमक बनाते हैं, और छोटे पैमाने पर खेती में पूरी तरह आत्मनिर्भर हैं।

उनके जीवन में नकद पैसे की शुरुआत धार्मिक मिशनरियों के माध्यम से हुई, जो उनकी गतिविधियों में सहायता करने के साथ-साथ उन्हें इंडोनेशियाई मुद्रा ‘रुपियाह’ में कुछ भुगतान भी किया करते थे। इस धन से वे स्थानीय बाजारों से आवश्यक वस्तुएं जैसे नमक, कपड़े और शेविंग ब्लेड जैसी छोटी चीजें खरीद सकते थे।

1990 के दशक से कोरोवाई जनजाति समुदाय के कुछ सदस्य वानिकी (Forestry) परियोजनाओं में भी शामिल हुए, जो विदेशी कंपनियों द्वारा चलाए जा रहे थे। इनमें से कई लोगों ने प्राथमिक शिक्षा भी पूरी नहीं की थी, फिर भी वे टूर गाइड या नौका चालक जैसे कार्यों में अपनी भूमिका निभा रहे थे।

कोरोवाई जनजाति

धीरे-धीरे कुछ युवाओं ने बोवेन डिगोएल और कोह जैसे क्षेत्रों में माध्यमिक शिक्षा हासिल की, और आज के दौर में कई कोरोवाई जनजाति युवा जयापुरा जैसे शहरी केंद्रों में पढ़ाई कर रहे हैं।

पहले कोरोवाई जनजाति पूरी तरह से जंगलों में बसे रहते थे और बाहरी दुनिया से कटे हुए थे। उन्होंने सिर्फ जंगली जानवरों से ही नहीं, बल्कि ‘बुरी आत्माओं’ से भी परिवार की रक्षा करने के उद्देश्य से ऊँचे पेड़ों पर अपने घर बनाए थे। यह विश्वास था कि ऊँचाई पर बना घर उन्हें आत्मिक खतरों से भी सुरक्षित रखेगा।

लंबे समय तक इस कोरोवाई जनजाति ने किसी भी धार्मिक प्रचार या धर्मांतरण को अस्वीकार किया। लेकिन 1990 के दशक के उत्तरार्ध में कुछ बदलाव देखने को मिले – और उसी दौरान कई लोगों ने ईसाई धर्म अपनाते हुए बपतिस्मा लेना भी शुरू किया।”

पेड़ के घर और पारंपरिक जीवनशैली

कोरोवाई जनजाति समुदाय जब कोई नया घर बनाता है, तो पहले एक मजबूत और ऊंचा पेड़ चुना जाता है, जो मुख्य आधार बनता है। उसका फर्श मजबूत टहनियों और लकड़ी से तैयार किया जाता है। दीवारों के लिए वे साबूदाना पेड़ की छाल का उपयोग करते हैं, और छत जंगल की मोटी पत्तियों से तैयार की जाती है। पूरा घर बांस जैसी मजबूत रतन की रस्सियों से बांधा जाता है, ताकि वह आंधी-पानी में भी सुरक्षित रहे। वहां तक पहुंचने के लिए एक लंबी लकड़ी की सीढ़ी नीचे से ऊपर तक लगाई जाती है।

नया घर बसाने से पहले, एक रात पहले वे विशेष अनुष्ठान करते हैं जिससे बुरी शक्तियों को दूर किया जा सके। हर परिवार के पास खुद का सागो (साबूदाना) का छोटा खेत होता है, जो उनका मुख्य भोजन है। वे जंगल से पत्तेदार सब्जियां और जंगली फल भी इकट्ठा करते हैं। उनके पास दो ही प्रमुख पालतू जानवर होते हैं – सूअर और कुत्ते।

सूअर का महत्व सामाजिक है और उसे केवल धार्मिक अवसरों या खास समारोहों में ही बलि दी जाती है, जबकि कुत्ते शिकार में मदद के लिए पाले जाते हैं। मछली पकड़ने के लिए धनुष और तीर का उपयोग होता है, और पहले समय में मगरमच्छों को भी भोजन के लिए शिकार किया जाता था।

कोरोवाई जनजाति -रीति-रिवाज़, सामाजिक मान्यताएं और जीवन के नियम

कोरोवाई जनजाति समाज अपने रीति-रिवाज़ों के पालन को बहुत गंभीरता से लेता है। ‘सागो पार्टी’ नामक समारोह जीवन की खास घड़ियों – जैसे जन्म, विवाह और मृत्यु – पर आयोजित होता है। ऐसे आयोजनों में वे विशेष वस्तुएं जैसे सूअर, कुत्ते के दांत, और सीप के गोले आदान-प्रदान करते हैं, जो सामाजिक रूप से मूल्यवान मानी जाती हैं। जो समूह इन वस्तुओं को प्राप्त करता है, वही आगे किसी समारोह में इन्हें वापिस करता है – ये एक तरह का आदान-प्रदान चक्र होता है।

जब कोई व्यक्ति मरता है, तो उसकी ज़मीन उसके वंशज को मिलती है। अगर किसी पुरुष का भाई मर जाए, तो उसकी पत्नी यानी ‘भाभी’ उस पुरुष को विरासत में मिलती है, क्योंकि शादी में दहेज देना पड़ता है। यहां पुरुष सामान्यतः 20 वर्ष की उम्र के बाद विवाह करते हैं, जबकि लड़कियों की शादी उनके पहले मासिक धर्म के बाद की जाती है। हर घर में एक मुखिया होता है, जिसके साथ उसकी एक या एक से अधिक पत्नियां और अविवाहित बच्चे रहते हैं। यदि पिता की मृत्यु हो जाए, तो बच्चों और मां की देखभाल पिता के परिवार द्वारा की जाती है।

बच्चों की परवरिश और शिक्षा

परिवार के बड़े – माता और पिता – बच्चों को जीवन जीने के नियम, परंपराएं, और वर्जनाएं सिखाते हैं। जैसे ही लड़की किशोरावस्था में प्रवेश करती है, उसे घर के सारे कामकाज और जिम्मेदारियों में सम्मिलित किया जाता है। विवाह के बाद उसे एक वयस्क महिला के रूप में स्वीकार कर लिया जाता है। वहीं, लड़कों को 15 साल की उम्र से शिकार, घर बनाने, और जंगल में जीवित रहने के गुर सिखाए जाते हैं। इसी अवधि में बच्चों को जीवन की उत्पत्ति, आत्मा और जंगल के साथ सामंजस्य के ज्ञान की शिक्षा दी जाती है।

आत्मा, आध्यात्मिकता और विश्वदृष्टि

कोरोवाई जनजाति लोग अच्छाई और बुराई में भेद करना अच्छी तरह जानते हैं। वे प्रकृति, स्वास्थ्य, यौन शिक्षा और ब्रह्मांड के रहस्यों को संतुलन के रूप में समझते हैं। उनका विश्वास है कि पूरा ब्रह्मांड अदृश्य और खतरनाक आत्मिक प्राणियों से भरा हुआ है। पूर्वजों की आत्माओं को विशेष शक्ति और स्थान प्राप्त है। कुछ वृद्ध महिलाएं, जो आध्यात्मिक ज्ञान रखती हैं, उन्हें विशिष्ट ‘आकृतियों’ (spiritual figures) के रूप में देखा जाता है।

कोरोवाई जनजाति मानते हैं कि कुछ लोग जानवरों में भी बदल सकते हैं, और मृतक की आत्मा कुछ समय तक पेड़ के घरों के आसपास मंडराती रहती है। इस अवधारणा से जुड़ा उनका जीवन दर्शन, मृत्यु और पुनर्जन्म को लेकर उनकी सोच को दर्शाता है – जो पूरी तरह प्रकृति और आत्मा से जुड़ी है।

मानव बलि और नरभक्षण: सच्चाई या अफवाह?

क्या कोरोवाई जनजाति इंसानों को मारकर खाते हैं?

कोरोवाई जनजाति के बारे में कहा जाता है कि वे नरभक्षण (Cannibalism) करते हैं – खासकर उन लोगों का जो ‘खतरनाक जादूगर’ समझे जाते हैं।

इन्हें “खाखुआ (Khaakhua)” कहा जाता है, जिन पर शक होता है कि उन्होंने काले जादू से किसी की मौत करवाई है।

कोरोवाई जनजाति के सदस्य मिलकर उस खाखुआ को पकड़ते हैं और फिर मानव बलि दी जाती है, जिसे पवित्र माना जाता है।

संघर्ष, सज़ा और आदिवासी न्याय प्रणाली – कोरोवाई की नजर में

कोरोवाई जनजाति समाज में पुराने समय से ही अलग-अलग कबीले और परिवारों के बीच टकराव होते आए हैं। ये झगड़े अक्सर व्यभिचार, हत्या, चोरी और टोनाही (काले जादू) जैसी चीज़ों से उपजते थे। ऐसी घटनाओं में न्याय की एक अनोखी और भयावह परंपरा देखी जाती थी – जिसमें ‘नरभक्षण’ यानी इंसानों को मारकर खाना, दंड स्वरूप किया जाता था। जिसे जादू-टोने या ‘खाखुआ’ (दुष्ट आत्मा/चुड़ैल) समझा जाता था, उसे कबीले के सामने प्रताड़ित कर मारा जाता और फिर उसके शरीर के हिस्सों को कबीले के सदस्यों में बांट दिया जाता – जिसे वे सामूहिक रूप से खाते थे।

2006 में एक विदेशी टीवी चैनल के दस्तावेज़ी शो में कथित तौर पर इस तरह की एक घटना रिकॉर्ड की गई थी, जिसमें एक व्यक्ति को ‘खाखुआ’ बताकर सरेआम दंडित किया गया – और अंततः मारा जाकर खा लिया गया। हालांकि इस अनुष्ठान में महिलाओं और बच्चों की कोई भूमिका नहीं होती थी; वे इस प्रक्रिया से दूर रखे जाते थे।

बदला और सामाजिक रिश्ते: कबीलों की जटिल राजनीति

कोरोवाई जनजाति समाज में यदि किसी व्यक्ति की हत्या होती है, तो बदले की भावना लगभग अनिवार्य रूप से उत्पन्न होती है। यह बदला सिर्फ एक हत्या तक सीमित नहीं रहता – बल्कि पीढ़ियों तक चली आने वाली दुश्मनी को जन्म देता है। एक कबीला दूसरे कबीले से लंबे समय तक रंजिश पाल सकता है, जो समय के साथ रक्तपात में बदल सकती है।

विवाह जैसे सामाजिक बंधन भी अक्सर संघर्ष का कारण बनते हैं – खासकर जब किसी लड़की या महिला के साथ गलत व्यवहार होता है। ऐसे मामलों में, उसका परिवार बदले की मांग कर सकता है। कई बार इन विवादों को शांत करने के लिए परिवारों के बीच वस्तुओं का आदान-प्रदान (जैसे जानवर, सीप, दांत, पारंपरिक गहने) किया जाता है।

यदि कोई पुरुष किसी महिला को जबरन साथ ले जाता है, तो इसे विवाहपूर्वक ‘समाधान’ माना जाता है, बशर्ते महिला के परिवार को दहेज दिया जाए – जिसे यहां सामाजिक न्याय का हिस्सा समझा जाता है।

“जब जंगल की अदालत बैठती है, तो न कोई वकील होता है, न कोई कानून की किताब… वहां न्याय का नाम है ‘खाखुआ’ – और उसकी सजा है – मौत।
मगर ये मौत कभी रुकती नहीं, क्योंकि बदले का बीज फिर किसी नए सीने में पनपने लगता है।
कोरोवाई के लिए न्याय और बदला, दोनों एक ही सिक्के के दो डरावने पहलू हैं।”

“एक रात… जब बारिश की बूँदें जंगल को भिगो रही थीं, तभी एक 60 फीट ऊंचे घर में एक व्यक्ति को खींचते हुए ले जाया गया – ये कोई फिल्म का दृश्य नहीं, बल्कि कोरोवाई संस्कृति की नृशंस परंपरा का जीवंत उदाहरण था।”

जादू-टोने और आत्माएं

खाखुआ और आत्माओं का डर

कोरोवाई जनजाति का विश्वास है कि हर बीमारी या मौत के पीछे किसी न किसी आत्मा या खाखुआ का हाथ होता है।

वे तांत्रिक अनुष्ठानों और बलि से उस शक्ति को शांत करने की कोशिश करते हैं।

कई बार मृतक के शरीर के कुछ हिस्से को खाने से आत्मा शांत हो जाती है – ऐसा उनका मानना है।
“जब सभ्यता जादू पर विश्वास करती है तो वह पूजा बनती है… लेकिन जब जंगल जादू से डरने लगता है, तब वह नरभक्षी बनता है… यही है कोरोवाई की पहचान।”

पहली मुलाक़ात: जब बाहरी दुनिया पहुंची जंगल में

1974 – जब कोरोवाई से हुई पहली मुठभेड़

1974 में पहली बार कुछ पश्चिमी मानवशास्त्रियों ने इस जनजाति से संपर्क किया।

उनकी ज़िंदगी देखकर दुनिया हैरान रह गई – कपड़े नहीं, हथियार लकड़ी के, भोजन कंद-मूल और कीड़े।

कई लोगों ने इसे “लॉस्ट ट्राइब ऑफ मॉडर्न टाइम्स” कहा।

“ये वो क्षण था जब आधुनिक सभ्यता और आदिम समाज आमने-सामने आए… एक के हाथ में कैमरा था, और दूसरे के हाथ में भाला… और दोनों को एक-दूसरे की भाषा नहीं आती थी।”

आज का कोरोवाई: कितना बदला, कितना वही?

क्या आज भी इंसानों की बलि दी जाती है?

कुछ क्षेत्रों में कोरोवाई लोगों ने बाहरी संपर्क स्वीकारा है – स्कूल, कपड़े, बाजार।

लेकिन बहुत से समूह आज भी कटे हुए जंगलों में अपने पुराने रीति-रिवाजों पर टिके हैं।

इंसानों की बलि और नरभक्षण के किस्से अब भी सुनने को मिलते हैं, लेकिन पक्के सबूत नहीं मिलते।

“सवाल सिर्फ इतना नहीं कि क्या वो इंसानों को खाते हैं… सवाल ये है कि हम इंसानों को समझते कब हैं? क्या हम उनके डर, उनकी मान्यताओं को जानने की कोशिश करते हैं?”

लोककथा या सच्चाई? एक जनजाति, कई कहानियाँ

बहुत से डॉक्युमेंट्री और रिपोर्ट्स कोरोवाई जनजाति को अत्यंत डरावने रूप में पेश करते हैं, जबकि कई रिसर्चर मानते हैं कि यह अतिशयोक्ति है।

कुछ विशेषज्ञ कहते हैं – “वे सिर्फ आत्मरक्षा में नरभक्षण करते हैं, न कि रिवाज के तौर पर।”

“जिन जंगलों में सभ्यता ठहर नहीं पाती, वहां कोरोवाई न केवल जीते हैं, बल्कि पूरी बस्ती खड़ी कर देते हैं – यही तो उनकी असली बुद्धिमानी है, जो हर पेड़, हर टहनी से झलकती है।”
कुछ लोगों का मानना है कि कोरोवाई जनजाति आदिवासी नरभक्षी होते हैं, लेकिन असलियत इससे थोड़ी अलग है। ये लोग आमतौर पर कैसोवरी (एक बड़ा पक्षी), सांप, छिपकली, हिरण और जंगली सूअर जैसे जानवरों का शिकार कर उनका मांस खाते हैं।

इसके अलावा, ये अपने भोजन में बीटल लार्वा यानी एक प्रकार के कीड़ों के बच्चे भी शामिल करते हैं, जो उनके पोषण का अहम हिस्सा माने जाते हैं।
राफेल नामक एक शोधकर्ता ने कहा था – ‘इंसानी मांस खाने की बात सिर्फ अफवाह है, असल में वे जंगल में जो मिल सके, वही खाते हैं – और उसी में उन्हें संतुलन मिल जाता है।’”

टूर गाइड राफेल केम्बरेन से जो जानकारी सामने आई, उसके मुताबिक, एक वक्त था जब कोरोवाई समुदाय में इंसानी मांस खाना आम बात थी। लेकिन जैसे-जैसे उनका संपर्क बाहरी दुनिया से बढ़ा, ये आदत धीरे-धीरे खत्म होने लगी। केम्बरेन का कहना था कि उस दौर में लगभग हर कोरोवाई जनजाति नरभक्षी बन चुका था, क्योंकि उनके समाज में इसे कोई पाप या अपराध नहीं माना जाता था।

समापन: जंगल की कहानी वहीं खत्म नहीं होती…

A.P.S JHALA की अंतिम पंक्तियाँ:
“कोरोवाई जनजाति हमें डराती है… क्योंकि हम उनसे अलग हैं।
लेकिन जो लोग पेड़ों के ऊपर अपना घर बनाते हैं, जो हर आहट पर अपने बच्चों को छुपा लेते हैं – वे सिर्फ आदिवासी नहीं… वे उस जंगल की आत्मा हैं।
और आत्माओं से डरना तो इंसानी फितरत है… है ना?”

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Author

  • A.P.S Jhala

    मैं A.P.S JHALA, "Kahani Nights" का लेखक, हॉरर रिसर्चर और सच्चे अपराध का कहानीकार हूं। मेरा मिशन है लोगों को गहराई से रिसर्च की गई डरावनी और सच्ची घटनाएं बताना — ऐसी कहानियां जो सिर्फ पढ़ी नहीं जातीं, महसूस की जाती हैं। साथ ही हम इस ब्लॉग पर करंट न्यूज़ भी शेयर करेंगे ताकि आप स्टोरीज के साथ साथ देश विदेश की खबरों के साथ अपडेट रह सके। लेखक की लेखनी में आपको मिलेगा सच और डर का अनोखा मिश्रण। ताकि आप एक रियल हॉरर एक्सपीरियंस पा सकें।

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