1976 में दिल्ली के तुर्कमान गेट पर हुआ गोलीकांड आज भी इमरजेंसी का सबसे काला अध्याय माना जाता है। जानिए पूरी सच्चाई, शाह आयोग की रिपोर्ट से।
तुर्कमान गेट कांड : जब लोकतंत्र थम गया
25 जून 1975 की रात को भारत में आपातकाल (Emergency) लागू हुआ और इसके साथ ही देश के लोकतांत्रिक ढांचे पर ताला लग गया। तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने देश की सुरक्षा और राजनीतिक अस्थिरता का हवाला देकर यह कदम उठाया था। लेकिन इसके पीछे कई राजनैतिक कारण थे, जिनमें उनकी चुनावी वैधता को लेकर कोर्ट का फैसला भी एक मुख्य कारण था।
आपातकाल के दौरान लोगों के मौलिक अधिकार रद्द कर दिए गए, अखबारों पर सेंसरशिप लगा दी गई और लाखों लोगों को बिना वारंट गिरफ्तार कर लिया गया। इसी समय तुर्कमान गेट कांड जैसी घटनाएं सामने आईं, जिन्हें आज भी इमरजेंसी का सबसे काला अध्याय माना जाता है।
तुर्कमान गेट कांड क्या था? (What was Turkman Gate Kand)
स्थान:
पुरानी दिल्ली का इलाका तुर्कमान गेट, जहाँ मुस्लिम और निम्न आयवर्ग के लोग झुग्गियों में रहते थे।
घटना का समय:
अप्रैल 1976, जब इमरजेंसी लागू हुए 10 महीने हो चुके थे।
मुख्य कारण:
- संजय गांधी का शहरी पुनर्विकास अभियान
- झुग्गियों को हटाकर दिल्ली को “मॉडर्न” बनाना
- जबर्दस्त जनसंख्या नियंत्रण (Zabardasti Nasbandi)
घटना का सिलसिला: जब इंसानियत को रौंदा गया
- सरकारी आदेश:
संजय गांधी के नेतृत्व में दिल्ली में स्लम क्लियरेंस अभियान चलाया गया। तुर्कमान गेट की झुग्गियों को हटाने के लिए DDA और पुलिस को आदेश दिए गए। - प्रशासनिक अमानवीयता:
सुबह-सुबह बुलडोज़र आए, लोगों को उठाकर बाहर किया गया, उनके घरों को गिराया गया। लोगों को कोई नोटिस या वैकल्पिक आवास नहीं दिया गया। - जनता का विरोध:
हजारों लोग तुर्कमान गेट के पास जमा हुए और विरोध प्रदर्शन शुरू किया। महिलाएं और बच्चे भी सड़कों पर आ गए। - पुलिस का दमन:
पुलिस ने भीड़ को तितर-बितर करने के लिए लाठीचार्ज और आंसू गैस के गोले छोड़े। लेकिन जब भीड़ नहीं मानी तो सीधे गोली चलाई गई।
कितने लोग मारे गए?
सरकारी रिपोर्ट: 11 मौतें
स्वतंत्र गवाहों के अनुसार: 50 से अधिक लोग मारे गए, जिनमें महिलाएं और बच्चे भी थे।
कुछ शवों को तो कथित तौर पर बिना दस्तावेज़ के गुपचुप तरीके से दफनाया गया या ट्रकों में भरकर ले जाया गया।
शाह आयोग की रिपोर्ट: इमरजेंसी की सच्चाई
आपातकाल के बाद जनता सरकार आने पर शाह आयोग का गठन किया गया, जिसने इमरजेंसी के दुरुपयोग की जांच की।
शाह आयोग ने कहा:
“तुर्कमान गेट पर जो कुछ हुआ, वह राज्यसत्ता द्वारा गरीबों पर खुला हमला था। किसी भी लोकतंत्र में इस तरह की हिंसा को स्वीकार नहीं किया जा सकता।”
संजय गांधी की भूमिका
संजय गांधी इंदिरा गांधी के बेटे और इमरजेंसी के दौरान “गोपनीय शक्ति केंद्र” बन चुके थे। वे दिल्ली के पुनर्विकास, नसबंदी अभियान और स्लम हटाओ मुहिम के पीछे थे।
उन पर लगे आरोप:
तुर्कमान गेट इलाके में कार्रवाई का सीधा आदेश देना
अधिकारियों पर दबाव डालना
लोगों को जबरन नसबंदी के लिए मजबूर करना
हालाँकि, उनके खिलाफ कोई कानूनी कार्रवाई नहीं हुई।
तुर्कमान गेट और संजय गांधी की सनक: जब विरोध कुचल दिया गया
वरिष्ठ पत्रकार और 1974 के छात्र आंदोलन से जुड़े रहे श्रीनिवास जी का मानना है कि तुर्कमान गेट की घटना सिर्फ एक प्रशासनिक कार्रवाई नहीं थी, बल्कि यह संजय गांधी की ज़िद और तानाशाही सोच का नतीजा थी। उस दौर में संजय गांधी का कांग्रेस पार्टी में बोलबाला इतना अधिक था कि कई बार वे प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी से भी ज़्यादा प्रभावशाली नजर आते थे।
जनसंख्या नियंत्रण की योजना को लेकर संजय गांधी की सोच बेहद आक्रामक थी। उन्होंने पूरे देश में नसबंदी अभियान की शुरुआत करवाई — भले ही इसकी मंशा धर्म या जाति से जुड़ी न हो, लेकिन कई जगहों पर इसे जबरदस्ती लागू किया गया, और यही डर तुर्कमान गेट जैसे इलाकों में भी साफ दिखाई दिया।
श्रीनिवास बताते हैं कि संजय गांधी ने तुर्कमान गेट इलाके को “साफ और सुंदर” बनाने की बात कही थी, और उसी आदेश पर सरकारी बुलडोज़रों की फौज इलाके में उतर आई। हालांकि इस क्षेत्र में कुछ हद तक अतिक्रमण ज़रूर था, पर जामा मस्जिद के पास की दुकानें — जिनसे मस्जिद की आय होती थी — उन्हीं को निशाना बनाया गया। यही कारण था कि स्थानीय लोगों और इमाम ने इस कार्रवाई का विरोध किया, लेकिन इस विरोध को भी कुचलने की तैयारी पहले से थी।
स्थिति इतनी बिगड़ गई कि लाठीचार्ज, आंसू गैस, और कथित फायरिंग जैसी घटनाएं भी हुईं। भले ही श्रीनिवास सटीक मृतकों की संख्या नहीं बता पाए, लेकिन उनका यह साफ़ कहना था कि “कुछ जानें ज़रूर गई थीं, और वह सिर्फ आँकड़े नहीं थे — वे किसी के बेटे, भाई या पिता थे।”
इस घटना ने न केवल स्थानीय जनता को हिलाकर रख दिया, बल्कि कांग्रेस पार्टी की छवि खासकर मुस्लिम समुदाय में बुरी तरह गिरा दी। जब 1977 में आम चुनाव हुए, तो देश के मुसलमानों ने संगठित होकर कांग्रेस का विरोध किया। साथ ही, नसबंदी अभियान को भी उस समय मुस्लिम समाज ने धार्मिक, सामाजिक और संवैधानिक अपमान के रूप में देखा और खुलकर विरोध किया।
पत्रकार जॉन दयाल और अजय बोस की गवाही: जब मस्जिद की चौखट भी सुरक्षित नहीं रही
तुर्कमान गेट कांड की भयावहता को विस्तार से उजागर करने का काम दो वरिष्ठ पत्रकारों — जॉन दयाल और अजय बोस — ने अपनी चर्चित पुस्तक “For Reasons of State: Delhi Under the Emergency” में किया। यह किताब आपातकाल हटने के तुरंत बाद प्रकाशित हुई थी, और इसमें उन्होंने इस घटना को साफ-साफ “खूनी कांड” कहा है।
पुस्तक में एक चौंकाने वाला विवरण सामने आता है — दिल्ली प्रशासन सौंदर्यीकरण अभियान के नाम पर इतना क्रूर हो चुका था कि उसने जामा मस्जिद जैसी पवित्र जगह के भीतर भी पुलिस भेज दी थी। शाह आयोग की रिपोर्ट भी इस बात की पुष्टि करती है कि पुलिस ने जामा मस्जिद के परिसर में घुसकर लाठीचार्ज किया था।
जानकारी के अनुसार, यह घटना सोमवार की नमाज़ के ठीक बाद हुई थी। लोग मस्जिद से बाहर निकल ही रहे थे कि तभी पुलिस ने परिसर में प्रवेश कर लिया। लोगों ने डर से मस्जिद के विशाल मुख्य द्वार को बंद कर दिया, यह मानते हुए कि पुलिस धार्मिक स्थल का सम्मान करेगी। इमाम ने खुद पुलिस को चेताया— “रुको, यह अल्लाह का घर है!”, लेकिन यह चेतावनी बेअसर रही।
पुलिस ने अंदर घुसकर बेरहमी से लाठीचार्ज किया, जिसमें महिलाएं और बच्चे तक घायल हो गए। यह हमला न सिर्फ संवैधानिक अधिकारों पर, बल्कि धार्मिक भावनाओं पर भी सीधा प्रहार था।
15 से 19 अप्रैल 1976 तक तुर्कमान गेट और उसके आसपास के इलाकों में ज़बरदस्त विरोध प्रदर्शन हुए थे। स्थानीय लोगों ने अपने घरों को टूटने से बचाने के लिए प्रशासन का जमकर विरोध किया, लेकिन नतीजा उन्हें दमन और खामोशी के रूप में भुगतना पड़ा।
मीडिया की चुप्पी
इमरजेंसी के दौरान अखबारों पर सेंसरशिप थी। कई रिपोर्टरों ने घटना की कवरेज करनी चाही, लेकिन उन्हें पुलिस ने रोका या गिरफ्तार कर लिया।
“Indian Express” और कुछ विदेशी पत्रकारों ने बाद में इस घटना की जानकारी बाहर निकाली, जिससे यह मामला जनता के सामने आया।
क्या था असर ?
दिल्ली के गरीब तबके में भय और अविश्वास का माहौल बन गया।
सरकार और प्रशासन के खिलाफ गहरा रोष पैदा हुआ।
इमरजेंसी के खिलाफ जनमत तैयार होने लगा, जिसने 1977 के चुनावों में इंदिरा गांधी की हार सुनिश्चित की।
आज भी तुर्कमान गेट का नाम लेते ही राजकीय दमन, अल्पसंख्यकों पर अत्याचार और लोकतंत्र की हत्या की छवि बनती है।
50 साल बाद भी सवाल?
- क्या पीड़ितों को न्याय मिला?
नहीं। न कोई मुआवजा, न कोई माफी। - क्या कोई स्मारक बना?
नहीं। ना कोई आधिकारिक स्मृति स्थल, ना ही शहीदों का नाम सार्वजनिक रूप से दर्ज। - क्या मीडिया ने अब सच्चाई दिखानी शुरू की?
हां, लेकिन अब भी बहुत कुछ अनकहा है।
सबक जो आज भी ज़रूरी हैं
सत्ता का अंधा उपयोग लोकतंत्र को मिटा सकता है।
मीडिया की आज़ादी ज़रूरी है ताकि ऐसी घटनाओं को रोका जा सके।
जनता को अपने अधिकारों के प्रति जागरूक रहना चाहिए।
इमरजेंसी का वो ज़ख्म जो आज भी हरा है
तुर्कमान गेट कांड सिर्फ एक हिंसक घटना नहीं थी, बल्कि यह उस समय का आइना है जब सरकार ने अपनी जनता के खिलाफ ही मोर्चा खोल दिया। ये घटना हमें बार-बार याद दिलाती है कि लोकतंत्र को बचाने के लिए नागरिकों को सजग, मीडिया को स्वतंत्र और सरकार को जवाबदेह होना जरूरी है।
अक्सर पूछे जाने वाले सवाल (FAQs)
तुर्कमान गेट कांड कब हुआ?
अप्रैल 1976 में, दिल्ली के पुरानी दिल्ली इलाके में।
किसके नेतृत्व में हुआ?
संजय गांधी के शहरी पुनर्विकास अभियान के तहत।
कितने लोग मारे गए?
आधिकारिक रिपोर्ट में 11, लेकिन असली संख्या 50 से अधिक मानी जाती है।
क्या इसकी जांच हुई?
हां, शाह आयोग ने जांच की और इसे मानवाधिकार उल्लंघन माना।
क्या किसी को सज़ा हुई?
नहीं, किसी पर कानूनी कार्रवाई नहीं हुई।
Kahani Nights के इस विशेष आलेख में हमने एक ऐसी घटना को उजागर किया है जिसे इतिहास में दबा दिया गया था। अगर आपको यह लेख ज्ञानवर्धक लगा हो, तो कृपया इसे शेयर करें ताकि हमारे लोकतंत्र की रक्षा के लिए हम सब जागरूक रहें।
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