अघोरी साधु वाराणसी : जो मृत शरीरों के टुकड़े और मांस खाते हैं, उनके तंत्र साधना, भस्म साधना और भूत-प्रेतों से संपर्क के पीछे की गहराइयों को जानिए
वाराणसी के श्मशान घाट पर। पिछले चार घंटों से गंगा के किनारे बनी एक चिता पर लगातार छह शव अग्नि को समर्पित किए जा चुके हैं। धुएं और राख के बीच एक काले वस्त्रों में लिपटा, लंबे बालों वाला साधु मंत्रों का जाप कर रहा है। यह व्यक्ति कोई साधारण साधु नहीं, बल्कि अघोरी पंथ से जुड़ा है—वो रहस्यमय संप्रदाय जो विशेष तांत्रिक अनुष्ठानों के लिए मानव मांस का सेवन करता है और नरकंकालों व खोपड़ियों का उपयोग पूजा-पाठ व आभूषणों में करता है।
अघोरी स्वयं को आध्यात्मिक शक्तियों का स्वामी मानते हैं—उनके अनुसार वे मानसिक और शारीरिक रोगों को दूर करने की क्षमता रखते हैं, यहां तक कि जीवन भी बचा सकते हैं।
वह साधु धीरे-धीरे राख के ढेर के पास जाता है, और उसे अपने पूरे शरीर और चेहरे पर मल लेता है।
“यह पवित्र भस्म अंतिम और सबसे शुद्ध रूप है। जब देह जलकर राख बन जाती है, तभी वह अपने असली स्वरूप को प्राप्त करती है। हम इस भस्म को पूरे शरीर पर लगाकर शरीर की माया से मुक्ति की साधना करते हैं,” कहते हैं बाबा राम मघेश, जो पिछले पंद्रह वर्षों से अघोरी मार्ग पर हैं और अब चालीस की उम्र पार कर चुके हैं।
अघोरी साधु और अघोर परंपरा का इतिहास
वाराणसी, जिसे “काशी” और “मोक्ष नगरी” भी कहा जाता है, न केवल आध्यात्मिकता का केन्द्र है, बल्कि तांत्रिक साधना की भूमि भी है। गंगा किनारे स्थित मणिकर्णिका घाट जहां मृत्यु जीवन का अंतिम सत्य बनती है, वहीं से अघोरी परंपरा की नींव भी जुड़ी हुई है।
अघोर परंपरा हजारों वर्षों पुरानी है, जो स्वयं भगवान शिव से जुड़ी मानी जाती है। “अघोर” का अर्थ होता है – ‘जो घोर नहीं है’, अर्थात् वह जो डर से परे है।
अघोरी कौन होते हैं ?
लगभग पाँचवीं शताब्दी ईसा पूर्व से ही अघोरी साधु शिव के मार्ग पर चल रहे हैं। शिव, जिन्हें संहार के देवता कहा जाता है, उनके लिए श्मशान भूमि ही तपस्या का केंद्र है। अघोरी साधु मानते हैं कि भगवान शिव का वास वहीं होता है जहाँ मृत्यु का सन्नाटा बसा हो—श्मशान में। यही कारण है कि वे जीवन और मृत्यु के बीच की रेखा को मिटाकर उसी वातावरण में साधना करते हैं जहाँ मृत शरीर अग्नि को अर्पित किए जाते हैं। वे वहीं रहते हैं, वहीं साधनाएं करते हैं, मंत्रों का जाप करते हैं और पवित्र अग्नि में देवी-देवताओं को आहुति चढ़ाते हैं।
अघोरीों की दृष्टि में सृष्टि का हर तत्व पवित्र और समान है। वे न तो घृणा करते हैं, न ही किसी से डरते हैं, और न ही किसी वस्तु को अपवित्र मानते हैं। उनके लिए संसार में कोई भेदभाव नहीं है—न सुंदरता और कुरूपता में, न शुद्ध और अशुद्ध में। वे मानते हैं कि जब देह से आत्मा निकल चुकी हो, तो वह शरीर अब सिर्फ प्रकृति का हिस्सा है—और उस देह का मांस खाने से वे यही सिद्ध करते हैं कि इस संसार में कुछ भी अपवित्र नहीं है, क्योंकि सबकुछ ईश्वर की ही सृष्टि है।
“अगर हम सभी प्रकृति के हिस्से हैं, तो फिर भेदभाव क्यों?” बाबा राम महेश कहते हैं, जो वर्षों से अघोरी साधना में लीन हैं। वे बताते हैं कि एक सच्चा अघोरी कभी किसी की हत्या नहीं करता। भले ही उनके जीवन और साधनाएं आम लोगों को विचित्र और भयावह लगें, लेकिन वे कभी किसी इंसान को नुकसान नहीं पहुंचाते।
अघोरी साधु तांत्रिक पथ के अनुयायी होते हैं जो सांसारिक बंधनों, सामाजिक नियमों और नैतिक सीमाओं को पूरी तरह त्याग चुके होते हैं। वे मानते हैं कि हर वस्तु — चाहे वह शुद्ध हो या अशुद्ध, पवित्र हो या अपवित्र — ब्रह्म का ही स्वरूप है।
इसलिए वे श्मशान में रहते हैं, वहीं साधना करते हैं, और मृत्यु को जीवन का एक चरण मानते हुए उसे अपनाते हैं। अघोरी साधुओं की संख्या बहुत कम होती है और वे अपने रहन-सहन से अलग ही पहचाने जाते हैं – नग्न शरीर, भस्म लिप्त शरीर, खोपड़ियों से बने मालाएँ और त्रिशूल उनके आम चिन्ह होते हैं।
अघोरी वही बनता है, जिसने जीवन के मोह और सांसारिक बंधनों से स्वयं को मुक्त कर लिया हो। जहां आम लोग मृत्यु की छाया से डरकर श्मशान से दूरी बनाए रखते हैं, वहीं अघोरी साधु उसी श्मशान को अपना तपस्थल बना लेते हैं। उनके लिए श्मशान केवल अंतिम यात्रा का स्थान नहीं, बल्कि आत्मज्ञान और तंत्र-साधना का प्रमुख केंद्र होता है। यह मान्यता है कि मृत्यु के समीप रहकर की गई साधना जल्दी सिद्धि प्रदान करती है, और यही कारण है कि अघोरी अपने तप के लिए श्मशान की राह चुनते हैं।
क्यों खाते हैं अघोरी लाशों का मांस?
यह सवाल सबसे ज्यादा आकर्षण और डर पैदा करता है — क्या अघोरी सच में लाशों का मांस खाते हैं?
उत्तर है – हाँ, कुछ विशेष तांत्रिक अनुष्ठानों में अघोरी मृत शरीर के मांस (विशेष रूप से अधजले शव) का प्रयोग करते हैं। परंतु इसका उद्देश्य मात्र भयावहता नहीं, बल्कि तांत्रिक साधना में एक ‘अंतिम सीमा’ को पार करना होता है।
वे मानते हैं कि शरीर और आत्मा के बीच के भ्रम को तोड़ने के लिए उन्हें हर प्रकार की वर्जना को त्यागना पड़ता है। मांस, शराब, और नशा — सब इनका हिस्सा होते हैं। वे मृत्यु को “भय” नहीं, “बोध” मानते हैं।
अघोरी साधु हमेशा अपने साथ एक नरकंकाल की खोपड़ी रखते हैं, जिसे ‘कपाल’ या ‘कपालिका’ कहा जाता है। इसे वे केवल प्रतीक रूप में नहीं, बल्कि कई बार भोजन के पात्र की तरह भी उपयोग करते हैं। अघोरी समाज की सीमाओं से परे जाकर जीवन जीते हैं—
वे कभी-कभी कच्चा मांस और कुछ परिस्थितियों में मृत शरीर के अंगों का सेवन भी करते हैं, जो उनकी साधना का हिस्सा होता है। अघोरियों की विशेषता यह है कि वे किसी से कुछ भी याचना नहीं करते। उनका जीवन पूरी तरह से वैराग्य और तंत्र-साधना में समर्पित होता है। वे अपने शरीर को चिता की राख से ढकते हैं और अक्सर उसी अग्नि पर खाना पकाते हैं, जहां किसी की अंतिम विदाई हुई हो।
अघोरी साधना की विधि
अघोरी साधना सामान्य ध्यान या पूजा जैसी नहीं होती। यह अत्यंत गूढ़, भयानक और रहस्यपूर्ण होती है।
मुख्य साधनाएँ:
श्मशान साधना – रात के समय श्मशान में बैठकर ध्यान लगाना।
भस्म साधना – शव की राख (भस्म) से शरीर को लपेट कर तपस्या करना।
कपाल साधना – खोपड़ी में भोजन ग्रहण करना, जिससे अहंकार और घृणा समाप्त हो।
पंचमकार साधना – मांस, मदिरा, मत्स्य, मुद्रा और मैथुन – इन पांचों को साधना के रूप में अपनाना।
जब कोई अघोरी किसी निर्जीव देह पर खड़े होकर साधना करता है, तो उसे ‘शव साधना’ कहा जाता है,
जो शिव तंत्र का अत्यंत गूढ़ रूप है। इस विशेष साधना के दौरान वह मृत शरीर को भोग अर्पण करता है—जिसमें मांस और मदिरा जैसे तांत्रिक प्रसाद शामिल होते हैं। यह साधना पूर्ण एकाग्रता और साहस की मांग करती है।
अघोरी साधु कई बार एक पांव पर खड़े होकर भगवान शिव का ध्यान करते हैं और श्मशान की निस्तब्धता में बैठकर अग्निकुंड में आहुति देते हैं, जिससे उनका तांत्रिक अभ्यास पूर्ण होता है।
मणिकर्णिका घाट और अघोरी समुदाय
वाराणसी का मणिकर्णिका घाट, जहां दिन-रात चिताएं जलती हैं, वहीं अघोरी साधु भी निवास करते हैं। यह घाट केवल अंतिम संस्कार का स्थान नहीं बल्कि “तंत्रभूमि” है।
यहां अक्सर रात में कुछ अघोरी साधु देखे जाते हैं जो शवों के पास ध्यानस्थ होते हैं। पुलिस और स्थानीय लोग भी उन्हें टोकते नहीं, क्योंकि यह उनकी साधना का हिस्सा होता है।
अघोरियों के अनुष्ठान और रहस्यमयी तंत्र
अघोरी साधना में मंत्र, यंत्र और तंत्र तीनों का प्रयोग होता है। विशेष रूप से अघोर मंत्र शक्तिशाली होते हैं, जिनका उच्चारण करने से मानसिक और आध्यात्मिक शक्ति प्राप्त होती है।
उदाहरण:
“ॐ नमः अघोरेभ्यः” – यह अघोर मंत्र शिव के अघोर रूप को समर्पित है।
कुछ अघोरी साधु तंत्र का प्रयोग भूत-प्रेत बाधा दूर करने, रोग नाश करने, या दुर्भाग्य हटाने के लिए करते हैं। लोग इन्हें ओझा, बाबा या ‘भूत भगाने वाले’ तांत्रिक के रूप में भी जानते हैं।
अघोरियों की मान्यताएँ
सब कुछ ब्रह्म है: अपवित्र और पवित्र का कोई अंतर नहीं।
मृत्यु एक भ्रम है: आत्मा अमर है, शरीर का नाश स्वाभाविक है।
वैराग्य ही शक्ति है: सांसारिक मोह को त्यागना ही मोक्ष का मार्ग है।
डर को जीतो: डर को साधना के ज़रिये खत्म करना।
समाज की नज़र में अघोरी
समाज अघोरियों को भय और सम्मान दोनों की दृष्टि से देखता है। कुछ लोग उन्हें “राक्षस” मानते हैं तो कुछ “साक्षात शिव के रूप”।
अघोरी साधु अपने व्यवहार के कारण आम जन के बीच विवादास्पद माने जाते हैं। परंतु गहराई से देखने पर पता चलता है कि वे साधना की उस अवस्था में पहुँच चुके होते हैं जहाँ ‘अच्छा-बुरा’, ‘पाप-पुण्य’ जैसे शब्द महत्वहीन हो जाते हैं।
अघोरी और विज्ञान – एक द्वंद्व
जहाँ अघोरी साधु आध्यात्मिकता की चरम सीमा पर विश्वास रखते हैं, वहीं विज्ञान उनके कर्मों को मनोवैज्ञानिक, सांस्कृतिक और तांत्रिक फ्रेमवर्क में देखता है।
कुछ मनोवैज्ञानिक मानते हैं कि अघोरी साधना अपने आप में मानसिक नियंत्रण और चरम आत्म-अनुशासन का एक प्रयोग है।
लेकिन लाशों से जुड़ी क्रियाओं को वैज्ञानिक दृष्टिकोण से “संक्रमण” या “स्वास्थ्य खतरे” की दृष्टि से भी देखा जाता है।
क्या अघोरी साधु सच में भूतों से बात करते हैं?
अघोरी साधु मानते हैं कि वे आत्माओं से संवाद कर सकते हैं। विशेष अनुष्ठानों में वे मृत आत्माओं को बुलाकर उनसे कुछ प्रश्न पूछते हैं या उनसे शक्ति प्राप्त करने की कोशिश करते हैं।
कुछ रिपोर्ट्स के अनुसार, मणिकर्णिका घाट के पास कई लोगों ने अघोरियों को रात में कुछ अद्भुत (या डरावनी) क्रियाएँ करते देखा है – जैसे खोपड़ियों से मंत्र पढ़ना, राख से आकृतियाँ बनाना, या अचानक खुद से बात करना।
वाराणसी के प्रसिद्ध अघोरी बाबा
बाबा किनाराम:
वाराणसी के सबसे प्रसिद्ध अघोरी संत, जिन्होंने अघोर सिद्धांतों को व्यवस्थित किया। उनके नाम पर “किनाराम स्थान” आज भी वाराणसी में स्थित है और अघोरी परंपरा का मुख्य केंद्र माना जाता है।
बाबा भीमाशंकर नाथ:
जो मणिकर्णिका घाट के पास वर्षों तक एक चिता के पास साधना करते रहे। उनके बारे में कहा जाता है कि उन्होंने कई बार ‘सिद्धियाँ’ प्राप्त कीं।
वर्तमान अघोरी बाबा:
आज भी कई अघोरी साधु वाराणसी में रहते हैं, जो खुले में नहीं आते। वे केवल तांत्रिकों, साधकों और सच्चे जिज्ञासुओं को दर्शन देते हैं।
मृत्यु के पार की साधना
अघोरी साधना और जीवन पद्धति एक रहस्य है – मृत्यु के भय से परे जाकर मोक्ष की तलाश। यह मार्ग आम इंसानों के लिए नहीं, बल्कि उन विरलों के लिए है जो अपने अस्तित्व, मोह और भ्रम को पूरी तरह त्याग चुके हैं।
वाराणसी के अघोरी साधु हमें यह सिखाते हैं कि असली डर मृत्यु नहीं, बल्कि हमारी सीमाएँ हैं। और जब वह सीमाएँ टूटती हैं, तब ही साधना पूर्ण होती है।
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